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मानक हिन्दी के शुद्ध प्रयोग भाग 3

रमेशचन्द्र महरोत्रा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6999
आईएसबीएन :81-7119-471-0

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सशक्त अभिव्यक्ति के लिए समर्थ हिंदी...

Manak Hindi Ke Shuddh Prayog 3 - A Hindi Book - by Ramesh Chandra Mahrotra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस नए ढंग से व्यवहार-कोश में पाठकों को अपनी हिंदी निखारने के लिए हज़ारों शब्दों के बारे में बहुपक्षीय भाषा-सामग्री मिलेगी। इस में वर्तनी की व्यवस्था मिलेगी।, उच्चारण के संकेत-बिन्दु मिलेंगे-व्यत्पत्ति पर टिप्पणियाँ मिलेंगी। व्याकरण के तथ्य मिलेंगे- सूक्ष्म अर्थभेद मिलेंगे, पर्याय और विपर्याय मिंलेंगे-संस्कृति का आशीर्वाद मिलेगा, उर्दू और अँग्रेजी का स्वाद मिलेगा-प्रयोग के उदाहरण मिलेंगे, शुद्ध-अशुद्ध का निर्णय मिलेगा।
पुस्तक की शैली ललित निबंधात्मक है। इस में कथ्य को समझाने और गुत्थियों को सुलझाने के दौरान कठिन और शुष्क अंशों को सरल और रसयुक्त बनाने के लिहाज़ से मुहावरों, लोकोक्तियों, लोकप्रिय गानों की लाइनों, कहानी-क्रिस्सों, चुटकलों और व्यंग्य का भी सहारा लिया गया है। नमूने देखिए-स्त्रीलिंग ‘दाद’ (प्रशंसा) सब को अच्छी लगती है, पर पुल्लिंग ‘दाद’ (चर्मरोग) केवल चर्मरोग के डाक्टरों  को अच्छा लगता है। ‘मैल, मैला, मलिन’ सब ‘मल’ के भाई-बंधु हैं। (‘साइकिल’ को) ‘साईकील’ लिखनेवाले महानुभाव तो किसी हिंदी –प्रेमी के निश्चित रूप से प्राण ले लेंगे- दुबले को दो असाढ !.. अरबी का ‘नसीब’ भी ‘हिस्सा’ और ‘भाग्य’ दोनों है। उदाहरण-आप के नसीब में खुशियाँ ही खुशियाँ हैं। (जब कि मेरे नसीब में मेरी पत्नी हैं !)
यह पुस्तक हिंदी के हर वर्ग और स्तर के पाठक के लिए उपयोगी है।

 

‘अपेक्षा’ और ‘उपेक्षा’

 

‘ईक्ष्’ माने ‘ताकना’। इस से युक्त शब्द ‘प्रतीक्षा’ हम दरवाज़े को ताकते रहते हैं। ‘प्रतीक्षालय’ में मुसाफ़िर लोग अपनी गाड़ी की राह ताकते रहते हैं। इसी प्रकार, ‘प्रेक्षा’ बराबर ‘ध्यानपूर्वक देखना’ होता है (तमाशे को), और ‘प्रेक्षागृह’ बराबर ‘थियेटर’ होता है।
यही ‘ईक्ष् उपर्युक्त शीर्षक के दोनों शब्दों -‘अपेक्षा’ और ‘उपेक्षा-में विद्यमान है।
‘अपेक्षा’ का मतलब ‘प्रत्याशा’ है। (मुझे आप ये यह ‘अपेक्षा’ नहीं थी।)
‘अपेक्षित’ वह है, जिस की आशा की गई हो, जो इच्छित हो, जिस की आवश्यकता हो। (उसे ‘आपेक्षित’ सफलता मिल गई।)
‘अपेक्षी’ अपेक्षा करनेवाला होता है, जिसे ‘उत्तरापेक्षी’ में याद कीजिए।
‘निरपेक्ष’ को किसी से किसी बात की अपेक्षा नहीं होती, वह आत्मनिर्भर और तटस्थ होता है।
‘अपेक्षा’ का दूसरा अर्थ ‘तुलना में’ तभी निकलता है, जब इस के पूर्व ‘की’ या ‘-री’ या ‘-नी’ लगा हो। (उस की अपेक्षा, मेरी अपेक्षा, अपनी अपेक्षा।) इसे ‘अपेक्षया’ और ‘अपेक्षाकृत’ (अरबी में ‘निस्बतन’ और ‘बनिस्बत’) के साथ रखिए, जो (किसी की) तुलना में’ अर्थ के वाचक हैं।
‘उपेक्षा करना’ ‘अपेक्षा करना’ का उलटा है। वह ‘अनदेखा करना, नज़र-अंदाज़ करना’ है। जब कोई हमारी ‘अपेक्षा’ पूरी नहीं करता, तब हम उस की ‘उपेक्षा’ करने लग सकते हैं। इस प्रकार ‘उपेक्षा’ बराबर ‘उदासीनता, अवहेलना, घृणा’ आदि है। उपर्युक्त विवरण के अनुसार ‘अपेक्षा’ संज्ञा और अव्यय दोनों है, जब कि उपेक्षा केवल संज्ञा है।
‘अपेक्षित’ चाहा हुआ होता है, ‘उपेक्षित’ अनचाहा। ‘अनपेक्षित’ को ‘उपेक्षित’ नहीं कर सकते। उस के होने की चाह नहीं की गई होती है, पर वह हो जाता है; वह अप्रत्याशित होता है।

 

‘अल्लाह’ और ‘खुदा’

 

‘खुदा’ फ़ारसी का है, ‘अल्लाह’ अरबी का हिन्दी में अल्ला’)।
‘अल्लाहो अकबर’ का अर्थ ‘ईश्वर महान् है’ (अरबी का ‘अकबर’ बराबर ‘महान्, बहुत बड़ा, अज़ीम)।
अरबी का ‘इलाह’ भी ईश्वर, खुदा’ है। ‘इलाहा’ (संबोधन-रूप) बराबर ‘हे ईश्वर, ऐ ख़ुदा है और ‘इलाही’ बराबर ‘मेरा ख़ुदा’ है।
अरबी के दो शब्द और देखें-‘अली’ ईश्वर का एक नाम है, और ‘अलीम’ भी। ‘अलीम’ का अर्थ ‘उच्च’ है (हज़रत मुहम्मद के दामाद और चौथे ख़लीफ़ा ‘अली’ थे) और ‘अलीम’ का अर्थ ‘सर्वज्ञ’ है।
अब ‘ख़ुदा’। ‘खुदा’ माने ‘स्वयंभू’। ‘ख़ुद’ माने ‘स्वयं। ‘खुदी’ माने ‘अहं, अभिमान’। ‘ख़ुददार’ माने ‘स्वाभिमानी’।
आप ने यह हलकी-फुलकी बात सुनी होगी-‘‘सारी ‘खुदाई’ एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ़।’’ ‘खुदाई’ माने ‘सृष्टि, जगत् संसार, खुदापन’ (‘खुदाई’ से बहुत भिन्न)।
‘खुदाबंद’ बराबर है ‘स्वामी, मालिक’; संबोधन में श्रीमन्, हुजूर’।
अब ‘खुदा’ के प्रयोग से संबंधित दो-तीन पदबंध देखें।
खुदा हाफिज़ –ईश्वर रक्षक है (अरब के ‘हिफाज़त’ माने ‘रक्षा’)
खुदा न ख़्वास्ता-खुदा से न चाहा हुआ अर्थात ईश्वर न करे (कि ऐसा हो।)
खुदा का नूर-‘दाढ़ी’ के लिए आदरसूचक शब्द-क्रम। अरबी के ‘नर’ का अर्थ है ‘प्रकाश, चेहरे की चमक-दमक’।

 

‘अल्हड़’ और ‘फूहड़’

 

इन शब्दों के मूल रूपों को खोजने के लिए कोशकारों ने काफ़ी हाथ-पैर मारे हैं, पर बात जम नहीं पाई है। ‘अल्हड़’ के लिए किसी ने खींच-तान की है संस्कृत के ‘अल (बहुत) +लल (इच्छुक)’ से और ‘फूहड़’ के लिए किसी ने अनुमान माना है संस्कृत के ‘पव (गोबर) + घट (गढ़ना)’ से। कोई ‘अल्हड़’ को प्राकृत के ‘ओलेहड’ (प्रमत्त) से जोड़ता है और कोई ‘फूहड़’ को देशज कह कर छुट्टी पा लेता है।
यद्यपि कोशों में इन शब्दों के एक-जैसे अर्थ ‘गँवार’ और ‘उज़ड्ड’ भी मिलते हैं, पर सही यह है कि इन में अर्थगत समानता बहुत कम है।
‘अल्हड़’ प्रथमतः ‘कम उम्र का’ है, ‘लड़कपन के कारण अदक्ष’ है। वह ‘बिना अनुभव का’ है ‘दुनियादारी को न जाननेवाला’ अर्थात् ‘लोकज्ञानशून्य है। वह ‘बच्चों के समान सरल’ है, ‘भोला है, ‘निर्द्वद्व’ है। वह मस्त’ है, ‘मनमौजी’ है, ‘लापरवाह’ है। ‘अल्हड़’ का अर्थ ’जिस के दाँत न निकले हों, ऐसा कम उम्र का बछड़ा भी है (जिस में ऊपर लिखे गए सब गुण-अवगुण हैं)।
‘अल्हड़’ गाली नहीं है, ‘फूहड़’ गाली है।
‘फूहड़’ प्रथमतः ‘सुचारु रूप से काम न करनेवाला’ अर्थात् ‘भद्दे ढंग से करनेवाला’ है।  वह ‘बेशऊर’ है, ‘भोंड़ा’ है, ‘निकम्मा’ है, वह सभ्यों की दृष्टि से स्तरहीन और हेय है।
‘अल्लह’ सामान्यतः मनुष्य (या बछड़ा) ही होगा-केवल जीवधारी। ‘फूहड़’ मनुष्य के अलावा भी बहुत-कुछ हो सकता है, जैसे ‘फूहड़ तरीका, फूहड़ चाल, फूहड़ बात, फूहड़ मज़ाक’ इत्यादि।

 

‘अवधान’ और ‘आधान’

 

ये शब्द स्वयं तो हिन्दी में कम व्यवहृत होते हैं, पर इन से बननेवाले कुछ अन्य शब्द काफ़ी चलन में हैं। सब से पहले देखिए-‘सावधान’। यह है ‘स’ धन ‘अवधान’, अर्थात् ‘अवधानसहित, ध्यानसहित’। ‘अवधान’ माने ‘ध्यान, एकाग्रता, मनोयोग, लगन’। ‘अव’ धन ‘धा’ का संस्कृत में अर्थ निकलेगा ‘ध्यान रखना, कान देना, सतर्क होना’। ‘धा’ धातु के माने हैं ‘रखना’।

व्यवधान’ में भी ‘अवधान’ है, जिस के आरंभ में वि’ जुड़ा है-विरुद्धार्थी भाव के साथ। इसलिए ‘व्यवधान का अर्थ है ‘हस्तक्षेप, अवरोध, छिपाना, ढकना’।
अब एक उद्घोषणा पढ़िए-‘टकना-समिति के सत्त्वावधान में कवि-सम्मेलन’। इस में प्रयुक्त ‘तत्त्वावधान बराबर हैं ‘तत्त्व’ धन ‘अवधान’ , जिस में ‘तत्त्व’ का अर्थ ‘वास्तविक स्थिति’ है। ‘तत्त्वावधान’ का मतलब है ‘वास्तविक स्थिति पर एकाग्रता अर्थात् देख-रेख या निरीक्षण या सावधानतापूर्वक कार्य-संचालन का भार’।
‘आधान’ में भी ‘धा’ धातु है, जिस के पहले ‘आ’ जुड़ने पर संस्कृत में ‘आ’ धन ‘धा’ का अर्थ निकलेगा। ‘स्थापित’ करना, निष्पन्न करना, प्राप्त करना’। ‘आधान’ का अर्थ है ‘रखने का स्थान, स्थापन, ग्रहण, प्रयत्न’। इस से बने ‘गर्भाधान’ (गर्भ-धारण) और ‘कराधान’ (करारोपण) पर्याप्त जाने पहचाने शब्द हैं। किसी ज़माने में ‘अग्न्याधान’ (यज्ञाग्नि की स्थापना) और ‘कौतुकाधान’ (कौतुक का बीजोरोपण या उत्पादन) भी प्रजलित रहे है, जो आजकल हिंदी के शब्दकोशों में शो-पीसों का काम कर रहे हैं।
एक शब्द और। किसी शंका आदि का ‘समाधान’ (संदेह-निवारण) भी ‘आधान’ पर टिका है।

 

आटा और बेसन

 

सिर्फ़ ‘आटा’ कहने से गेहूँ के आटे का बोध होता है, भले ही उस का कोशीय अर्थ गेहूँ, जौ, मकई, आदि को पीस कर तैयार किया हुआ चूर्ण’ है। हाँ, जिन के यहाँ पूरे तीन सौ पैसठ दिन, उदाहरण के लिए, केवल चावल और उस आटे से बनी चीज़ें खाई जाती हैं, उन के लिए ‘आटा’ का अर्थ ‘चावल का आटा’ निकल सकता है; वरना समान्यतया खरीदारी करते समय यदि आप को गेहूँ के अलावा किसी और अन्न का आटा चाहिए, तब आप को दुकानदार को बताना पड़ेगा कि आप किस को आटा चाहिए-चावल का या बाजरे का या कुटू का या सिंघाड़े का या चने का। लेकिन ‘चने की दाल’ का नहीं, क्योंकि ‘चने’ का आटा तो ‘आटा’ होता है, पर‘चने की दाल’ का आटा (आटा हो  कर भी, आटा नहीं) की ‘बेसन’ होता है। ‘यह’ रईसी है चने की दाल के आटे की कि उस के लिए पृथक् से एक समूचा शब्द आरक्षित है और यह आरक्षण इतना चुस्त है कि आप अन्य किसी दाल के आटे को भी ‘बेसन’ नहीं कह सकते। ‘बेसन’ संस्कृति-काल से ‘बेसन’-रूप में चला आ रहा है, जो प्राकृत एवं गुजराती में ‘वेसण’ है पंजाबी में ‘बेसण’ है, और मराठी में हिंदी के ही समान ‘बेसन’ है।
आटा’ फ़ारसी के ‘आर्द’ से संबद्ध माना जाता है और मराठी में ‘आटा’ रूप में ही मिलता है।

अब आटे के लिए ‘चून’ शब्द को याद कीजिए, जो ‘चूर्ण’ से बना है। ‘परचून’ में ‘पर’ और ‘चून’ अर्थात् दूसरे ‘चूर्ण’ भी शामिल हैं, जैसे विविध मसाले आदि, इसलिए ‘परचूनी’ या ‘परचूनिया’ अपनी दुकान पर यही सब-कुछ बेचता है।
आटे के लिए एक अन्य शब्द ‘पिसान’ है, जो ‘पिसा अन्न’ है।
एक आटा ‘मिस्सा आटा’ होता है, जो एकाधिक अन्नों का मिश्रित आटा होता है। ‘मिस्सा’ का संबंध ‘मीसना’ (मिलाना) से है, जो ‘मिश्रण’ से बना है।
यदि ग़रीबी में आटा गीला हो जाए, तो ?-ऐसी स्थिति से ‘मफ़लिसी (ग़रीबी) में आटा गीला होना का मुहावरा अर्थ हो गया है पहले से चलती आ रही कठिनाई पर ऊपर से और कठिनाई आ पड़ना’।
‘आयोजन’ और ‘संयोजन’
‘युगल’ और ‘युग्म’ (जोड़ा) के भीतर ‘युज्’ धातु है, जिस का अर्थ है जुड़ना, मिलना’।
इसी धातु से ‘योग’ (जो़ड़) और ‘योगी’ बने हैं।
‘युक्त’ (मिला हुआ, सहित) में भी यही धातु है।  

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